जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है ,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है ,
जो तुम सब के घट में व्याप्त है ,
उसी की अराधना करो और
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !
जो एक साथ ही ऊँचे पर और नीचे भी है ,
पापी और महात्मा , इश्वर और निकृष्ट कीट ,एक साथ ही है ,
उसी का पूजन करो-जो दृश्यमान है ,
जय है , सत्य है । सर्ब व्यापी है ,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !
जो अतीत जीवन से मुक्त,
भविष्य के जन्म-मरणों से परे है ,
जिसमें हमारी स्थिति है और
जिसमें हम सदा स्थित रहेंगे ,
उसीकी अराधना करो,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !
ओ विमूढ़ !जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो ,
उसके अनंत प्रतिबिंबों से यह विश्व पूर्ण है ,
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो ,
जो तुम्हे विग्रहों में डालती है ,
उस परम प्रभु की उपासना करो ,
जिसे सामने देख रहे हो ,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !
यह कविता ०९ जुलाई १८९७ को स्वामी विवेकानंद द्वारा अल्मोडा से एक अमेरिकन मित्र को प्रेषित किया गया था , मेरी पसंदीदा कविताओं में एक कविता यह भी है !