Thursday, February 12, 2009

जो तुममे व्याप्त है , उसी की अराधना करो !


वह,जो तुममे है और तुमसे परे भी ,
जो सबके हाथों में बैठकर काम करता है ,
जो सबके पैरों में समाया हुआ चलता है ,
जो तुम सब के घट में व्याप्त है ,
उसी की अराधना करो और
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !


जो एक साथ ही ऊँचे पर और नीचे भी है ,
पापी और महात्मा , इश्वर और निकृष्ट कीट ,एक साथ ही है ,
उसी का पूजन करो-जो दृश्यमान है ,
जय है , सत्य है । सर्ब व्यापी है ,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !

जो अतीत जीवन से मुक्त,
भविष्य के जन्म-मरणों से परे है ,
जिसमें हमारी स्थिति है और
जिसमें हम सदा स्थित रहेंगे ,
उसीकी अराधना करो,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !

ओ विमूढ़ !जाग्रत देवता की उपेक्षा मत करो ,
उसके अनंत प्रतिबिंबों से यह विश्व पूर्ण है ,
काल्पनिक छायाओं के पीछे मत भागो ,
जो तुम्हे विग्रहों में डालती है ,
उस परम प्रभु की उपासना करो ,
जिसे सामने देख रहे हो ,
अन्य सभी प्रतिमाओं को तोड़ दो !

यह कविता ०९ जुलाई १८९७ को स्वामी विवेकानंद द्वारा अल्मोडा से एक अमेरिकन मित्र को प्रेषित किया गया था , मेरी पसंदीदा कविताओं में एक कविता यह भी है !

Monday, February 9, 2009

कौन करता है यकीन अब गांधी के उपदेश में ?

पिछले दिनों गांधी जी को करीब से जानने की जिज्ञासा में कई पोस्ट से गुजरते हुए एक ग़ज़ल पर जाकर निगाहें ठिठक गयी । गांधी दर्शन के बहाने इतनी बढिया ग़ज़ल मैंने कभी नही पढी । परिकल्पना पर इस ग़ज़ल में हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तानियों के गुणों का ऐसा वर्णन किया गया है जो लगता है की यह हर भारतीय के दिल की बात है ।
भारतीय सभ्यता -संस्कृति से प्रभावित होकर कभी मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था कि " व्यक्ति जिसका अन्तर-मन प्रशांत हो , कभी भी सच्चे मायनों में हिंसा नही अपना सकता । मुझे उम्मीद है कि पूरब साइड में चांदनी की सरजमीं कहलाये जाने वाले भारत का उजाला शान्ति की चेतना को वैसे ही दूर तक पहुंचायेगा , जैसे चाँद की शीतल किरणें दोपहर की चिलचिलाती गरमी से राहत पहुंचाती है । " सचमुच गांधी का यह देश निर्विकार रूप से विनम्रता का देश है । रवीन्द्र प्रभात जी को साधुवाद इस बेहतरीन ग़ज़ल के लिए ।
रवीन्द्र प्रभात जी की इस ग़ज़ल को पढ़ने के बाद उनकी अन्य ग़ज़लों को पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न होती चली गयी , पढ़ते -पढ़ते गांधी से जुडी उनकी एक और ग़ज़ल पर मेरी निगाहें ठिठक गयी । कौन करता है यकीन अब गांधी के उपदेश में ?
रवीन्द्र प्रभात जी की ग़ज़लों का आकर्षण ऐसा है कि मैं ग़ज़ल - दर-ग़ज़ल बांचती चली गयी और प्यास बनी की बनी रह गयी । शुक्रिया प्रभात जी ! आपने अच्छी-अच्छी ग़ज़लों - गीतों - कविताओं और व्यंग्य से सजाया है अपनी परिकल्पना को .....पर मुझे आपकी ग़ज़लों ने ज्यादा प्रभावित किया !

परिकल्पना पर मेरी अन्य पसंदीदा ग़ज़ल-
खेल खेल सा खेल खिलाड़ी
कुछ मतलब की बातें शराब के बहाने
घर को हीं कश्मीर बना
हर तरफ़ संत्रास अब मैं क्या करुँ आशा ?
मोगैंबो खुश हुआ !
जीवन का उल्लास हमारे पास मियाँ
आज अपने-आप में क्या हो गया है आदमी
देश को अब चाहिय खुशनुमा सा एक प्रभात ......